फेक्ट्री मालिकों को सरंक्षण देने वाले क़ानून नहीं होने से देश ऐसी वस्तुओ का निर्माण नहीं कर पाते, जिनकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मांग हो। इस वजह से अमुक देशो का निर्यात गिरता है, आयात बढ़ता है और इस असंतुलन से व्यापार घाटा होता है। व्यापार घाटा होने का मतलब है डॉलर ख़त्म।
अब डॉलर जुटाने के लिए अमुक देश को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओ से कर्ज लेना पड़ता है। यदि राष्ट्राध्यक्ष ऐसे क़ानून गेजेट में छापना शुरू करता है, जिससे देश में स्थानीय इकाइयों के तकनिकी उत्पादन में सुधार हो तो अमुक देश कर्ज से बाहर आ जाएगा। किंतु यदि देश का मुख्य नीति नियंता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने समर्पण कर दे तो वह ऍफ़ डी आई की अनुमति देता है।
15 वीं शताब्दी से पहले तक किसी देश की सम्पत्ति जैसे सोना आदि लूटने के लिए सेना का इस्तेमाल होता था। यूरोप में जूरी सिस्टम आने कारण वहां उद्योग पनपे और कच्चे माल के रूप में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए हमले किये जाने लगे। किन्तु 20 वीं सदी में दुनिया में नेशन स्टेट सिस्टम और डेमोक्रेसी आने के बाद इस हमले ने व्यवस्थागत एवं कानूनी रूप लिया, और अब ये हमला ऍफ़ डी आई के माध्यम से किया जाता है।
यदि कोई देश हमले का सामना करने की जगह सरेंडर कर देगा तो ऍफ़ डी आई शांतिपूर्ण तरीके से आएगी। और यदि वह ऍफ़ डी आई रोकेगा तो उसे युद्ध में जाना पड़ेगा। यदि देश युद्ध हार जाता है, तो नतीजे में फिर ऍफ़ डी आई आएगी !!!
यह हमला अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको द्वारा किया जाता है। इस्राएल, रूस और चीन को छोड़कर शेष विश्व के सभी देश इस हमले की ज़द में है। कुछ इस हमले से ध्वस्त हो चुके है और शेष कतार में है।
क्योंकि भारत की सेना के निरंतर कमजोर होने के कारण हमें भारत के एक विशाल फिलिपिन्स में बदल जाने या इसका इराकीकरण हो जाने का भय है !! हमें यह नजर आने लगा कि राईट टू रिकॉल पीएम का क़ानून लाये बिना प्रधानमन्त्री को सेना मजबूत करने के लिए किसी भी तरीके से बाध्य नहीं किया जा सकता। और इसीलिए हम आम नागरिक रिकालिस्ट बन गए।
आज दुनिया में सबसे शक्तिशाली समूह बहुराष्ट्रीय कम्पनियां है। और इनके मालिकों के पास किसी भी देश का आर्थिक, धार्मिक एवं सामरिक रूप से अधिग्रहण करने के 2 मॉडल है -ऍफ़ डी आई एवं सेना
चूंकि भारत एवं अमेरिका के बीच शक्ति अनुपात 2:100 है, अत: अन्य पीड़ित देशो की तरह ही ऍफ़ डी आई हमारे लिए भी निम्न नतीजे लेकर आयेगा :
ऊपर दिए गए तीनो प्रभाव ऍफ़ डी आई के अनिवार्य साइड इफेक्ट्स है।
खंड (अ) में उस गठजोड़ के बारे में विवरण है जो ये शर्तें थोपते है। शर्तो का संक्षिप्त विवरण खंड (ब) में दिया गया है। खंड (स) में इससे बचने के तात्कालिक एवं स्थायी समाधान है। खंड ब एवं खंड स महत्त्वपूर्ण है, अत: यदि आप ऍफ़ डी आई के प्रायोजक समूहों से परिचित है तो सीधे खंड (ब) एवं (स) पढ़ सकते है।
(1) ऍफ़ डी आई के स्पोंसर्स :
(A) अमेरिकी सेना : दुनिया का सबसे शक्तिशाली संगठन जिसके पास दुनिया के सभी देशो के जोड़ के बराबर फायर पॉवर है। इनका लक्ष्य पूरी दुनिया पर सामरिक नियंत्रण हासिल करना है। रूस इनके रडार से बाहर हो चुका है। चीन अंतिम बाधा है। (B) मिशनरीज : सबसे तेजी से फैलता हुआ धर्म। यीशु का सन्देश पूरी दुनिया में ले जाना इनका मिशन है। मुख्य प्रतिद्वंदी इस्लाम। लेकिन जहाँ जहाँ अमेरिकी सेना या ऍफ़ डी आई जा रही है, वहां इस्लाम सिकुड़ता जा रहा है। (C) बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक : यह सबसे ताकतवर समूह है, और ऊपर दिए गए दोनों समूहों को पोषित करता है। ये अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस आदि के कुछ 50 परिवार है, जिनके नियंत्रण में दुनिया की सबसे शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां है। इन परिवारों में रोकेफेलर, रोथ्स्चाइल्ड, मॉर्गन आदि परिवार भी शामिल है। कुछ संक्षिप्त विवरण :
1.1. रोकेफेलर परिवार : स्टेंडर्ड ऑयल का फाउंडर जॉन डेविस रोकेफेलर आज तक का सबसे धनी व्यक्ति माना जाता है। उसकी सम्पत्ति कोई आकलन नहीं है। यह बिल गेट्स से 50 गुणा ज्यादा तक हो सकती है। वह ऐसी वस्तुओ का उत्पादन करता है, जिस पर किसी देश की पूरी अर्थव्यवस्था टिकी होती है। तेल, खनन , हथियार, भारी मशीनरी आदि।
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1890 में अमेरिका के तेल बाजार का 90% हिस्सा रोकेफेलर के कब्जे में था, और आज दुनिया का लगभग 40-50% तेल रोकेफेलर परिवार के नियंत्रण में है। जब आम अमेरिकी के मन में यह बात घर करने लगी कि रोकेफेलर का कंट्रोल अमेरिका में काफी बढ़ चुका है तो अमेरिकी सरकार ने उसका धंधा तोड़ने के लिए तरह तरह के क़ानून छापने शुरू किये। उस दौर में प्रकाशित हुए इस कार्टून में राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट को शिशु रूप में रोकेफेलर से जूझते हुए दिखाया गया है।
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किन्तु रोकेफेलर की शक्ति काफी बढ़ जाने के कारण सरकार उसकी ताकत घटाने में नाकाम रही। अमेरिका के सभी शीर्ष संस्थानों पर धीरे धीरे रोकेफेलर का नियंत्रण बढ़ता जा रहा था। उसने तेल के साथ खनिज, हथियार, स्टील आदि धंधो को भी कब्जाना शुरु किया। रोकेफेलर का बिजनेस मॉडल एकाधिकार यानी मोनोपॉली स्थापित करना है।
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सरकार के प्रतिरोध के बावजूद उसकी शक्ति बढ़ने से अमेरिकी सरकार एवं नेताओं की सार्वजनिक रूप से काफी फजीहत हो रही थी। अंत में सरकार एवं रोकेफेलर में रजामंदी हुयी कि सरकार उसका रास्ता रोकना छोड़ देगी, और बदले में वह पृष्ठभूमि में चला जाएगा। समझौते के मुताबिक़ 1913 में रोकेफेलर ने धंधे से संन्यास लिया, और कारोबार को कई दर्जन कम्पनियों में विभाजित करके अपने वारिसो में बाँट दिया। सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा उसने रोकेफेलर फाउन्डेशन को दान दे दिया, और कुछ थोडा से पैसा निजी संपत्ति के रूप में अपने पास रखा।
1937 में जब उसकी मृत्यु हुयी तो जॉन डी रोकेफेलर की निजी सम्पत्ति 400 बिलियन डॉलर थी। और यह राशि पूरे भारत के विदेशी मुद्रा कोष के आस पास है !! जाम नगर में अम्बानी की रिफायनरी रोकेफेलर की मशीनरी पर चलती है। भारत में ONGC वगेरह भी जहां तेल निकालती है, उनमे रोकेफेलर की मशीनों का इस्तेमाल होता है। अगर रोकेफेलर हमें स्पेयर पार्ट्स भेजना बंद कर दे तो ये सब रिफायनरी ठप हो जायेगी। इसके अलावा माइनिंग, हथियार, भारी मशीनरी, मीडिया आदि उद्योगों में भी रोकेफेलर परिवार सबसे बड़ा स्टेक होल्डर है।
1.2. रोथ्स्चाइल्ड परिवार : सोशल मिडिया पर यह परिवार काफी वायरल है अत: इसके बारे में आपने सुन पढ़ रखा होगा। इनका मुख्य धंधा डॉलर छापने का है। अमेरिका का फेडरल रिजर्व बैंक सरकारी बैंक नहीं है। यह एक निजी बैंक है, और इस पर रोथ्स्चाइल्ड परिवार का नियंत्रण है। इसके अलावा दुनिया भर के ज्यादातर बैंको में रोथ्स्चाइल्ड परिवार सबसे बड़ा स्टेक होल्डर है। भारत के बैंक भी अब तेजी से रोथ्स्चाइल्ड के कंट्रोल में जा रहे है।
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ये हर 10 साल में दुनिया के किसी न किसी देश का कोई बैंक डुबोते है या पूरे देश को ही दिवालिया कर देते है। यही इनका बिजनेस मॉडल है। भारत में इकोनोमी का बहुत बड़ा हिस्सा नकद होने के कारण इस पर बैंको का नियंत्रण नहीं है। अर्थव्यवस्था को बैंको के नियंत्रण में लाने के लिए नोटबंदी की गयी थी। नोट बंदी के लिए फंडिंग रोथ्स्चाइल्ड परिवार ने दी थी। इसके अलावा मीडिया, रेल, खनन, सभी तरह की वित्तीय संस्थाएं, बीमा, निर्माण आदि के कारोबार में रोथ्स्चाइल्ड का दखल है।
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यहाँ ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि हमें सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से खतरा नहीं है, और न ही हमें सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विरोध करना चाहिए। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ऐसी है जो बेहतर उत्पाद एवं बेहतर प्रबंधन द्वारा पैसा बनाती है, और उनसे हमें सिर्फ रिपेट्रीएशन का नुकसान है। सिर्फ एक पेज का क़ानून गेजेट में छापकर हम इस नुकसान की भरपाई कर सकते है। रिपेट्रीएशन का विवरण मैंने निचे दिया है।
मतलब मैं यहाँ बर्गर, पिज्जा, मैगी, कपड़े, जूते या इस तरह की चिल्लर उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कम्पनियों की बात नहीं कर रहा हूँ मेरा आशय उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से है जो अर्थव्यस्था के बेहद संवेदनशील क्षेत्रो जैसे प्राकृतिक संसाधन, जमीन, खनिज, मीडिया, बैंक, रेलवे, हथियार, दवाइयाँ, कृषि, भारी मशीनरी, चिकित्सीय उपकरण, उर्जा, संचार आदि में काम करती है, और इनका बिजनेस मॉडल इन क्षेत्रो पर कब्ज़ा करके एकाधिकार बनाना होता है।
एकाधिकार बनाने के लिए इन्हें ऐसे क़ानून छपवाने होते है जिनसे इन्हें अतिरिक्त लाभ हो। तो जब ये कम्पनियां किसी देश में प्रवेश करती है तो पहले वहां राजनैतिक नियंत्रण हासिल करती है। और जैसे जैसे अमुक देश में इनकी जड़े मजबूत होगी वैसे वैसे इनका राजनैतिक नियंत्रण बढ़ता जाएगा। और राजनैतिक नियन्त्रण द्वारा ये कम्पनियां सामरिक आर्थिक, एवं धार्मिक नियंत्रण बनाती है, ताकि नियंत्रण को स्थायी किया जा सके। अब इसमें धर्म कहाँ से आता है इसके विवरण मैंने आगे दिया। बहरहाल, इनके ओपरेट करने का तरीका ऐसा है कि न तो आप इन कम्पनियों का कभी नाम सुनेंगे और न ही इनके मालिको का।
हमे उस कोका कोला पर ध्यान नहीं देना चाहिए जो 10 रूपये का ऐसा रंगीन पानी पिला रहा है जिसे पिए बिना भी हमारा काम चल सकता है, बल्कि हमारे दिमाग में यह आना चाहिए कि कौनसी कम्पनी हमारे करोड़ो वाहनों को तेल पिला रही है, हमारी सेना को हथियार भेज रही है, जिनकी मशीनों पर हमारे अस्पताल चल रहे है, जिनसे हम हवाई जहाज खरीदते है आदि !!
ये वो कम्पनियां है जिनकी मशीनों पर टाटा, अम्बानी और स्वामी रामदेव की फेक्ट्रियां चलती है। ये कम्पनियां चूरण और चटनी के धंधे में नहीं है, ये ऐसे उत्पादों का धंधा करते है जो सिर्फ यही लोग बनाते है, और इनके अभाव में देश ठप हो जाता है। इस बुनियादी तकनीक पर इनका एकाधिकार है। और पिछले 200 सालो से ये घराने इस तरह से काम कर रहे है कि तकनीक पर उनका ये एकाधिकार बना रहे।
काम की बात : मैं नागरिक-कार्यकर्ताओ से विनती करूँगा कि वे इस बात पर ध्यान दें कि किस वजह से अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस आदि देशो के नागरिक इस तरह की भीमकाय और बेहद शक्तिशाली कम्पनियां खड़ी कर पाए । किसी भी देश में पैसा बनाने वालो को लूटने वाला सबसे मजबूत वर्ग जज, नेता और अधिकारी होता है।
तो इन लोगो ने किस तरह इस माफिया समूह से खुद की रक्षा की ?
दरअसल अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस में जूरी सिस्टम होने के कारण नागरिको की जूरी इन लोगो की निरंतर रक्षा कर रही थी !!
यदि जूरी इनकी रक्षा नहीं करती तो वहां के जज, नेता और पुलिस / टेक्स अधिकारी इन्हें कभी पनपने नहीं देते थे। जूरी ने इन्हें सरकार के विरुद्ध लड़ने की शक्ति और काम करने की स्वतंत्रता दी और इन उत्पादक कम्पनियों ने पूरी दुनिया पर नियंत्रण हासिल करने की शक्ति जुटा ली। और ऐसा उन्होंने अकेले नहीं किया। जूरी इन जैसी सैंकड़ो-हजारो छोटी मोटी कम्पनियों की रक्षा कर रही थी और उन हजारो कम्पनियों के विकास के नतीजा इन कम्पनियों के रूप में निकला। भारत जैसे देशो के नागरिको के पास अपने जज, नेता, अधिकारी माफिया को काबू में करने का कोई तरीका नही होने से वे अपने उत्पादक लोगो को रक्षा नहीं कर पाए, और न ही आज कर पा रहे है।
(2) बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको , मिशनरीज एवं सेना के बीच गठजोड़ :
भारत के बहुत कम नागरिक इस तथ्य से परिचित है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, सेना एवं मिशनरीज सगे भाई है। वजह यह है कि, पेड इतिहासकारों, पेड बुद्धिजीवियों एवं पेड विषय विशेषज्ञों के प्रायोजको ने उन्हें ये तथ्य इतिहास की पुस्तको में दर्ज करने से मना कर दिया है।
पिछले 500 साल से यह जॉइंट पैकेज है। किसी भी एक को लिया तो दूसरा और तीसरा भी आयेगा। पहले व्यापार करने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आती है। और जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना कंट्रोल बना लेती है तो मिशनरीज आते है। और यदि किसी देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नहीं आने दिया जाता है तो वहां सेना आती है। और जब सेना कंट्रोल ले लेती है तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां एवं मिशनरीज आते है।
2.1. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सेना की जरूरत क्यों है ?
कुछ 100 साल पहले तक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी खुद की सेना रखती थी। कुछ वहां के राजा की सेनाएं थी और कुछ खुद कम्पनियों की। 20 वीं शताब्दी में दो विश्वयुद्ध लड़े गए, जिससे पूरी दुनिया के देश स्वतंत्र होने लगे और डेमोक्रेसी आयी। अब राजतन्त्र ख़त्म होने के कारण कम्पनियां सेनाओ के लिए देश की सरकारों पर निर्भर हो गयी थी। जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किसी देश में जाती है तो नेताओं को बाध्य करती है कि वे ऐसे क़ानून गेजेट में छापें जिससे उन्हें एकाधिकार बनाने में मदद मिले। और चूंकि सभी देशो के पास सेनाएं है, अत: कई बार ईमानदार नेता बिकने या दबने से इनकार कर देता है। अब इन्हें दबाने के लिए सेना चाहिए। तो इस तरह अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सेना की जरूरत होती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको द्वारा बनाया गया नाटो इसी प्रकार का सैन्य गठजोड़ है।
उदाहरण के लिए ईराक ने अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपना तेल लूटने का अवसर नहीं दिया, और तेल के कारोबार के लिए एक नयी मुद्रा पेट्रो दीनार फ्लोट करने की कोशिश की, तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने वहां अपनी सेना भेजी। 2003 में सेना ने ईराक को टेकओवर किया ताकि अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उनके प्राकृतिक संसाधन लूट सके। सऊदी अरब में भी हर समय अमेरिकी सेनाएं रहती है, और इसीलिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां वहां से औने पौने दामो में तेल निकाल पाती है।
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असल में कम्युनिस्ट वम्युनिस्ट कुछ होता नहीं है। स्टालिन ने जब सत्ता संभाली तो उन्होंने अमेरिकी कम्पनियों को सोवियत में घुसने की अनुमति नहीं दी, और जो कुछ कम्पनियां थी उन्हें भी निकाल बाहर किया। अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियां सोवियत के असीमित प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करना चाहती थी। और यही से झगड़ा शुरू हुआ। अब ये सब बातें तो किताबों में लिख नहीं सकते। तो राजनैतिक धारा में इस पूरी लड़ाई पर पेड विशेषज्ञों कम्युनिस्ट और केपिटलिस्ट का लेबल चिपका कर एक नयी दिशा दे दी।
चेयरमेन माओ ने भी यही किया। उन्होंने 1949 में चीन के कारखानों में लगी सारी मशीनों को तुडवा दिया ताकि चीन खुद अपनी मशीने बना कर अपनी सेना को आत्मनिर्भर बना सके। लीप ईयर जैसे त्रासदियाँ इसी का नतीजा थी। बहरहाल, माओ और स्टालिन अपनी सेना को इस हालत का बना गए कि वह अमेरिकी-ब्रिटिश सेनाओ से खुद को बचा सके। इसी वजह से अमेरिकी कम्पनियां वहां आज तक प्रवेश नहीं कर पायी और वे आत्मनिर्भर होते चले गए।
2.2. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मिशनरीज की जरूरत क्यों है ?
भाषा, धर्म, संस्कृति और नस्ल ऐसी भिन्नताएं है जिनके आधार पर व्यक्ति खुद को अलग चिन्हित कर पाता है। और इस भिन्नता की वजह से वे किसी भिन्न समूह के खिलाफ लामबंद हो जाते है। अत: बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जहाँ भी जाती है वहां की भाषा, धर्म और संस्कृति में रूपांतरण करने का प्रयास करती है, ताकि प्रतिरोध से बचा जा सके। मिशनरीज धर्मान्तर करके भिन्नता दर्शाने वाले एक महत्त्वपूर्ण कारक को ख़त्म कर देती है। इसके अलावा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ऐसे कई उत्पाद बनाती है जो सिर्फ तब बिकेंगे जब स्थानीय संस्कृति में बदलाव किया जाएगा।
2.3. मिशनरीज को बहुराष्ट्रीय कम्पनियो की जरूरत क्यों है ?
मिशनरीज के पास किसी देश में जाकर चर्च खोलने की कोई वाजिब वजह नहीं होती। मिशनरीज को एक कवर चाहिए और ये कवर देने का काम कंपनियां करती है। मिशनरीज एवं कंपनियों के बीच यह 400 साल पुराना समझौता है कि ये कंपनियां जो पैसा बनाती है उसमे से कुछ दान मिशनरीज को देती है। मिशनरीज इससे गरीब इलाको में सेवा करने के लिए फर्स्ट राउंड में स्कूल, अस्पताल शुरू करती है और बाद में चर्च खोल देती है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां जितना ज्यादा मुनाफा कमाएगी मिशनरीज उतनी ही मजबूत होगी। यह सेट अप अब संस्थागत रूप ले चुका है, और बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो मुनाफा कमाती है उसमे से कॉर्पोरेट सोशियल रेस्पोंसबिलिटी रेशियो के रूप में कानूनन दान मिशनरीज को दे देती है। इस तरह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुनाफा बढ़ने से मिशनरीज की शक्ति बढती है।
उदाहरण के लिए साउथ कोरिया में पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने नियंत्रण बनाया और फिर मिशनरीज वहां पहुंचे। साऊथ कोरिया में तब सिर्फ 5% ईसाई थे, और अगले 50 वर्ष में मिशनरीज ने वहां की 40% आबादी को कन्वर्ट कर दिया।
2.4. मिशनरीज को सेना की जरूरत क्यों है ?
मस्जिदों में वीकली गेदेरिंग=साप्ताहिक एकत्रीकरण की प्रक्रिया होने के कारण मुस्लिम समुदाय को कन्वर्ट करना बहुत ही मुश्किल काम है। यदि मिशनरीज किसी मुस्लिम मुल्क में जायेंगे तो उन्हें आक्रामक प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। अत: ऐसी जगह पर मिशनरीज सिर्फ तब जा सकते है, जब वहां पर उनका सैन्य नियंत्रण हो। सेना यह काम करती है।
उदाहरण के लिए ईराक में मिशनरीज पुन: तब ही जा पाए जब वहां अमेरिका की सेना ने सैन्य नियंत्रण हासिल किया। 2003 तक ईराक में इसाई आबादी 5-6% थी जो 2014 में बढ़कर 13% हो गयी। किन्तु कन्वर्टेड लोगो के क्रिप्टो क्रिश्चियन* होने के कारण ये आंकड़े सामने नहीं आते।
(*) क्रिप्टो क्रिश्चियन वे इसाई है जो कन्वर्ट हो चुके है, किन्तु संख्या कम होने या विरोध होने या अन्य किसी वजह से खुद को ईसाई के रूप में दर्ज नहीं कराते। जब किसी क्षेत्र में इनका प्रतिशत 20 से ज्यादा हो जाता है तो ये सामने आना शुरू करते है। यह सीक्रेट प्रेक्टिस पिछले 2000 वर्षो से चलन में है। ये खुद के धर्म के साथ क्रिश्चियनिटी की प्रेक्टिस भी करते है, या ज्यादातर किसी धर्म में नहीं मानते।
माना जाता है कि कनाड़ा के नागरिक राजीव भाटिया ( जो अक्षय कुमार के नाम से भी जाने जाते है ) क्रिप्टो क्रिश्चियन है। टीवी पर नजर आने वाले कई राजनेता, मंत्री, सांसद, अभिनेता, लेखक, क्रिकेटर, कलाकार आदि क्रिप्टो क्रिश्चियन है। इसके कोई सबूत नहीं है, किन्तु इन लोगो में आपको ऐसे कई लक्षण मिलेंगे जिससे आप यह अनुमान लगा सकते है।
शिवाजी गायकवाड ( उर्फ़ रजनीकांत ) के बारे में भी इस तरह की धारणा है। कृपया रजनीकांत के जीसस पर वीडियो देखें। ये वीडियो आपको तमिल में मिलेंगे किन्तु आप उनका आशय समझ सकते है।
बहरहाल, भारत में ईसाई आबादी कितनी है, इसका जनगणना के आंकड़ो के आधार पर कुछ ठीक ठीक पता नहीं किया जा सकता। 2011 की जनगणना के सभी आंकड़े 2012 में प्रकाशित कर दिए गए थे, किन्तु मिशनरीज के दबाव में धार्मिक आंकड़ो को सार्वजनिक नहीं किया गया। धार्मिक आंकड़े डिजिटलाइज करने के बाद 2015 में प्रकाशित किये गए और इन्हें प्रकाशित करने से पहले डिजिटल आंकड़ो के मूल स्त्रोतों को नष्ट कर दिया गया था। तो जो आंकड़े सार्वजनिक किये गए है उनकी पुष्टि के लिए हमारे पास मूल स्त्रोत नहीं है। मतलब यदि सरकार ने इनके साथ छेड़ छाड़ की है तो अब इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती।
2.5. सेना को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जरूरत क्यों है ?
खनिज वो कच्चा माल है जिस पर दुनिया की पूरी इकोनॉमी चलती है, और सारा झगड़ा इन खनिजों का है। सेना जब किसी देश को टेकओवर करती है तो सेना के पास ऐसा सेट अप नहीं है कि वे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर सके। अत: सेना द्वारा अधिग्रहण करने के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके पैसा बनाती है और इसी से सेना का खर्च निकलता है।
इसीलिए एक विशाल सेना को चलाने के लिए यह जरुरी है कि उस देश के पास पैसे की बारिश करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां हो। जब आप पेड इतिहासकारो की पुस्तके में यह पढ़ते है कि, अंग्रेज भारत से कच्चा माल लेकर जाते थे और पक्का बनाकर भारत में ऊँचे दाम में बेचते थे तो यह कच्चा माल वह खनिज है, जिसे लूटने के लिए ब्रिटिश यहाँ 400 साल तक टिके रहे।
2.6. सेना को मिशनरीज की जरूरत क्यों है ?
मिशनरीज चर्च में आने वाले युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते है। पादरी उन्हें यह सूचना देते है कि सेना धर्म का विस्तार करती है, अत: जब वे सेना के लिए काम करते है तो एक तरह से अपने धर्म को मजबूत बनाने की दिशा में काम कर रहे होते है। वे उन्हें इस सच्चाई से अवगत कराते है कि, दुनिया में अंततोगत्वा वही धर्म रहेगा जिसके पास सबसे मजबूत सेना होगी।
तो इस तरह से ये तीनो समूह स्वभाविक रूप से एक दुसरे को मजबूत बनाते है, और अपने साझा हितो के लिए काम करते है। इन तीनो फोर्सेज़ का गठजोड़ ही ऍफ़ डी आई है।
(3) ऍफ़ डी आई थोपने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं :
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस आदि की इकॉनामी चरमरा गयी थी और इसे दुबारा खड़ा करने के लिए अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस के धनिकों ने 1950 में WTO, IMF और विश्व बैंक नामक संस्थाएं खड़ी की। इन संस्थाओ का काम उन देशो को ऍफ़ डी आई की अनुमति देने के लिए बाध्य करना है, जिन्हें डॉलर के कर्जे की जरूरत होती है। इनके आर्थिक प्रस्तावों के परिचय में भभका डालने के लिए पेड अर्थशास्त्री रिफोर्म्स, ग्लोब लाइजेशन, डेवलपमेंट, फ्री मार्केट, ओपन इकॉनामी आदि शब्दों का इफरात से इस्तेमाल करते है।
1960 से इन संस्थाओ के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विभिन्न देशो में प्रवेश करना शुरू किया, और जिस भी देश में ये रिफॉर्म्स आते है वह अनिवार्य रूप से दिवालिया हो जाता है। आपने अब तक जितने भी देशो के दिवालिये होने के बारे में ख़बरें पढ़ी है, वे सभी देश ऍफ़ डी आई के कारण रिपेट्रीएशन क्राइसिस की चपेट में आकर दिवालिये हुए है।
ऍफ़ डी आई का यह अनिवार्य नतीजा है कि अमुक देश हर तरीके से, हर आयाम से और पूरी तरह से इस हद तक बर्बाद होता है कि फिर न तो वहां लूटने के लिए कुछ रहता है और न ही उस देश को गुलाम बनाने की जरूरत होती है। छोटा देश जल्दी तबाह होगा जबकि बड़े देश को लुटने में वक्त लगता है।
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. उदाहरण के लिए साउथ कोरिया में ऍफ़ डी आई 1960 में पहुंची और साउथ कोरिया 1985 में बैंक करप्ट हुआ। उन्होंने अपनी राष्ट्रिय सम्पत्ति बेचकर चार साल और निकाले और फिर 1990 में फिर दिवालिये हुए। फिर उन्होंने अपनी राष्ट्रीय सम्पत्तियां बेचीं और 1993 में फिर बैंक करप्ट हुए। फिर 1998 में वे सम्पूर्ण रूप से दिवालिये हुए, और उनके पास बेचने को कुछ न बचा !!
ब्राजील, मलेशिया, थाईलेंड, इंडोनेशिया आदि को शामिल करते हुए पिछले 60 वर्षो में 40 से ज्यादा देश ऍफ़ डी आई की वजह से अब तक बैंक करप्ट हो कर पूरी तरह से बर्बाद हो चुके है।
ऍफ़ डी आई ने इन्हें कैसे बैंक करप्ट कर दिया और रिपेट्रीएशन क्राइसिस कैसे भारत का बैंक करप्ट होना तय है इसे मैं अगले खंड में कहूँगा। . (4) भारत में ऍफ़ डी आई : . भारत में सबसे पहले ऍफ़ डी आई की अनुमति जहांगीर ने दी थी। कृपया इस बात को नोट करें कि 1200 ईस्वी में जूरी सिस्टम आने की वजह से गोरे ऐसी वस्तुएँ बना सके जिसकी पूरी दुनिया में मांग थी। इन वस्तुओ की वजह से ही दुनिया के विभिन्न राजाओ ने उन्हें व्यापार करने की अनुमति दी।
यदि वहां जूरी सिस्टम न आता तो वे ऐसी वस्तुएं बनाने में सक्षम न हो पाते। और इन वस्तुओ में बंदूके भी शामिल थी। तो जब वे आये तो उनके एक हाथ में बन्दुक थी और एक हाथ में ऐसी उपभोक्ता वस्तुए जो जीवन को आसान बनाती है। बाद में गोरो ने किस तरह भारत पर आर्थिक एवं सैन्य नियंत्रण बनाया यह आप पेड इतिहासकारों की पुस्तको में पढ़ चुके है। किन्तु पेड इतिहासकारों ने उनके द्वारा किये गए धार्मिक नियंत्रण के प्रयासों को बिलकुल गायब कर दिया है। क्योंकि यदि इस बारे में छात्रों को सूचित किया गया तो सांता क्लाज को देखकर उनके मन में संदेह के बादल तुरंत घुमड़ने लगेंगे। . 4.1. गुआनी इन्क्विजेशन . 16 वीं शती में पुर्तगाल ने गोवा टेकओवर किया और इसके लगभग 40 साल बाद वहां पर मिशनरीज आये। गोवा में तब मिशनरीज ने बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण करने के लिए कार्यालयी व्यवस्था बनायी। इन दफ्तरों की पुस्तको में दर्ज किया जाता था कि कितने लोगो को जिन्दा जलाया गया, कितनो को दफनाया गया, कितने लोगो को कैसे कन्वर्ट किया गया आदि, और इस तरह के विवरण जिससे कन्वर्जन करने की बेहतर तकनीको को चिन्हित किया जा सके।
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. गोवा के प्राचीन मंदिरों को तोड़ दिया गया और संस्कृत समेत सभी स्थानीय भाषाओ की पुस्तकें जला दी गयी। यह प्रक्रिया अगले 150 वर्ष तक जारी रही। इस दौरान उन्होंने गोवा की 70% आबादी को कन्वर्ट कर दिया था। 1851 का सेन्सस कहता है कि गोवा में तब 66% ईसाई थे, और बाद में पूरे भारत में इनका माइग्रेशन होने के कारण गोवा में ईसाईयों का प्रतिशत घट गया। 1825 के आस पास इन्क्विजेशन ऑफिस बंद कर दिया गया था।
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. इस तरह के इन्क्विजेशन सिर्फ गोवा में नहीं किये गए , बल्कि पूरी दुनिया में किये गए थे। गोवा इन्क्विजेशन* के ऑर्डर सैंट जेवियर ने दिए थे। मिशनरीज के कई स्कूल्स इन्ही संत के नाम पर है - https://en.wikipedia.org/wiki/Go... . ( पाठक कृपया इस बिंदु को नोट करें कि मैं भारत में निवास करने वाले किसी भी ईसाई धर्मावलम्बी के खिलाफ नहीं हूँ, और न ही मुझे उनसे किसी प्रकार की शिकायत है। मैं यहाँ सिर्फ मिशनरीज के बारे में लिख रहा हूँ, इसाइयों के बारे में नहीं। मिशनरीज से आशय उस शक्तिशाली समूह से है जो पूरी दुनिया में कन्वर्जन की मुहीम चलाते है। भारत में रहने वाले एक आम ईसाई धर्मावलम्बी का इससे कोई सरोकार नहीं है। ) . 4.2. ब्रिटिश द्वारा कन्वर्जन के प्रयास . डचो के पास औद्योगिकी करण का वो मॉडल नहीं था जो गोरो के पास था। अत: प्रथम चरण में ब्रिटिश ने धर्मान्तर शुरू नहीं किये। दूसरी वजह उनके निशाने पर पूरा भारत था, और वे पूरा सैन्य नियंत्रण करने से पहले धर्मांतरण का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। सैन्य नियंत्रण हासिल करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने धर्मान्तर शुरू किये। गोरो की सेना में भारतीय ही शामिल थे और जब तक वे अपने सैनिको को कन्वर्ट न कर दें तब तक उनका इस्तेमाल इसाई धर्म के प्रसार में नहीं किया जा सकता था।
तो उन्होंने सबसे पहले भारत के सैनिको को कन्वर्ट करना शुरु किया। बैरको में हिन्दू देवी देवताओं के चित्र लगाने एवं धार्मिक चिन्ह शरीर पर धारण करने आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। बैरको में चर्च खोले गए और रविवार को पादरियों को बुलाकर उन्हें उपदेश किये जाते थे।
उल्लेखनीय है कि1857 से पहले तक कारतूसो पर भैंस की चर्बी चढ़ाई जाती थी। किन्तु वायसराय ने इस पर गाय एवं सूअर की चर्बी मिक्स करके लगाने के आदेश दिए। लक्ष्य यह था कि ऐसा करने पर शेष हिन्दू-मुस्लिम सैनिको का बहिष्कार करके उन्हें धर्म से च्युत कर देंगे, और तब इन्हें ईसाई धर्म में कन्वर्ट किया जा सकेगा। किन्तु अहिंसामूर्ती महात्मा मंगल पांडे जी ने क्रांति का सूत्रपात करके योजना पर पानी फेर दिया।
क्रांति होने के कारण भारत का साम्राज्य सीधे ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में चला गया और उन्होंने पूरा साम्राज्य गंवाने का जोखिम बनते देखकर कन्वर्जन रोक दिए। इस दौरान दो विश्वयुद्ध होने और कई जगह पर क्रांति होने के कारण ये कन्वर्जन 1950 तक भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में रुके रहे।
तो इस तरह 1857 की क्रान्ति ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा किये जा रहे कन्वर्जन के प्रयासों का नतीजा थी। . 4.3. 1947 से 1990 तक ऍफ़ डी आई . सोवियत रूस के पास जूरी सिस्टम एवं राईट टू रिकॉल नहीं है। और इस वजह से उनके पास ऐसा प्रशासन नहीं है कि वे ऐसी कम्पनियां खड़ी कर सके जिन्हें इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत हो। इस वजह से सोवियत रूस ने कभी अन्य देशो को लूटने में उतनी रुचि नहीं दिखायी। और रूस को जीतने प्राकृतिक संसाधन चाहिए वे उनके खुद के पास मौजूद है।
लेकिन स्टालिन के कारण सोवियत इतनी मजबूत सेना खड़ी कर चुका था कि सोवियत ने उन देशो को भी सहारा देना शुरु किया जो अमेरिकी कम्पनियों के निशाने पर थे। इससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको को कितना नुकसान हो रहा था इसके लिए आप भारत का उदाहरण देखिये। भारत की सेना 80% हथियार आयात करती है, और आयातित हथियारो के 70% हथ��यार हम रूस से लेते है। और हम ये हथियार पिछले 50 साल से ले रहे है। यदि रूस कमजोर हो जाता है और अमेरिका भारत पर अपनी पकड़ बना लेता है तो हमारी पूरी सेना अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ग्राहक बन जायेगी। और इसी खित्ते में आप रेल, पॉवर, बैंक, संचार, मीडिया आदि भी जोड़ लीजिये।
1990 तक भारत की इकोनॉमी में अमेरिका का दखल नगण्य था, अत: उस दौर में कोई विशेष ऍफ़ डी आई नहीं आयी। हालांकि अमेरिकी कंपनियों ने इसके लिए काफी प्रयास किये किन्तु इंदिरा जी ने रूस के सहयोग से ये प्रयास असफल कर दिए थे। 1990 में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा सोवियत रूस के 13 टुकड़े कर दिए जाने के बाद अब रूस में वो शक्ति नहीं बची थी कि वे भारत में अमेरिकियों को घुसने से रोक सके। . 4.4. 1991 से 2019 तक भारत में ऍफ़ डी आई . 1991 में मनमोहन सिंह जी ने WTO एग्रीमेंट के माध्यम से रिफोर्म्स यानी की ऍफ़ डी आई का रास्ता साफ़ किया। तब से उर्जा, खनन, संचार, रक्षा, रेल, चिकित्सा, मीडिया, परिवहन आदि जैसे संवेदनशील क्षेत्रो को शामिल करते हुए भारत के सभी क्षेत्र विदेशियों के लिए खोले जा रहे है। . ———— खंड (ब) ———— . (5) देशो के बैंक करप्ट होने का मूल कारण और इसकी प्रक्रिया : . पाठको से आग्रह है कि इस विषय को समझने पर ध्यान दें। इसे समझने से आप देश की पूरी इकॉनोमी समझ सकते है।
आयात-निर्यात में असंतुलन व्यापार घाटा है, और इसे पूरा करने के लिए डॉलर की जरुरत होती है।
उदाहरण के लिए यदि किसी देश ने किसी वर्ष में 100 करोड़ डॉलर का निर्यात किया है तो उसके विदेशी मुद्रा कोष में उस वर्ष 100 करोड़ डॉलर आयेंगे। और जब किसी देश के पास 100 करोड़ डॉलर ही है तो वह 100 करोड़ डॉलर का ही आयात कर सकता है। अब यदि अमुक देश को 150 करोड़ डॉलर का आयात करना है तो 50 करोड़ डॉलर की अतिरिक्त जरूरत होगी। तो यह अतिरिक्त 50 करोड़ डॉलर कहाँ से आयेंगे ?
निर्यात के अतिरिक्त किसी भी देश के पास डॉलर लाने के सिर्फ दो तरीके है - कर्ज एवं ऍफ़ डी आई
5.1. कर्ज : कर्ज लेकर इस डॉलर की पूर्ती की जाती है, और डॉलर सिर्फ सोने के बदले मिलते है। उदाहरण के लिए 1990 में भारत के पास देश चलाने के लिए सिर्फ 15 दिन का डॉलर बचा था, अत: हमने 67 टन सोना फ्लाईट में भरकर बैंक ऑफ़ इंग्लेंड में गिरवी रखा, और बदले में हमें लगभग 2 बिलियन डॉलर का कर्ज मिला। जितना व्यापार घाटा बढेगा और देश को उतना ही कर्ज डॉलर के रूप में लेना पड़ेगा। यदि सोना नहीं है तो कर्ज नहीं मिलेगा !!
5.2. ऍफ़ डी आई : डॉलर लाने का दूसरा एक मात्र तरीका ऍफ़ डी आई है। असल में जब कोई देश उपरोक्त संस्थाओ से कर्ज लेने जाता है तो ये संस्थाएं यह शर्त लगाती है कि यदि वे ऍफ़ डी आई की अनुमति दें तो ही उन्हें कर्ज दिया जाएगा !! उदाहरण के लिए 1990 में विश्व बैंक ने हमें कर्ज देने से मना कर दिया था, और इसीलिए हमें ऍफ़ डी आई की अनुमति देनी पड़ी। और जब कोई देश ऍफ़ डी आई की अनुमति देगा तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अमुक देश में डॉलर के रूप में निवेश करने आएगी। इस तरह बिना कर्ज लिए सरकार के पास डॉलर आ जाता है।
तो यदि किसी देश में ऐसे क़ानून नहीं है जो स्थानीय स्वदेशी इकाइयों के उत्पादन को बढ़ावा देते है तो देश को व्यापार में निरंतर घाटा होगा। और तब किसी देश के पास सिर्फ तीन रास्ते बचते है - या तो वह लोकल मेनुफेक्चरिंग इम्प्रूव करने के क़ानून छापेगा, या कर्ज लेगा या फिर ऍफ़ डी आई मंजूर करेगा।
और यहाँ इस बात पर विशेष ध्यान दें कि यदि ऍफ़ डी आई की अनुमति दी जायेगी तो लोकल मेनुफेक्चरिंग इम्प्रूव नहीं होगी, बल्कि पूरी तरह से तबाह हो जायेगी !! और इस वजह से व्यापर घाटा और भी बढेगा !! लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको के नियंत्रण में काम करने वाले पेड विशेषग्य, पेड अर्थशाष्त्री, पेड पत्रकार आदि मंत्र की तरह यह दोहराएंगे कि ऍफ़ डी आई आने से लोकल मेनुफेक्चरिंग मजबूत होगी निर्यात बढेगा और इकोनोमी में सुधार आएगा। . 6. और कैसे ऍफ़ डी आई हमें दिवालिया होने के लिए सुनिश्चित करता है ? . यहाँ ऍफ़ डी आई जनित उन समस्याओ के बारे में विवरण दिया गया है, जिससे भारत के ज्यादातर नागरिक कार्यकर्ता परिचित नहीं है। यह समस्या रिपेट्रीएशन क्राइसिस=डॉलर पुनर्भरण संकट है। और यह इतनी बड़ी लाइबिलिटी है कि इसे चुकाने में पूरा भारत बिक जाएगा। यदि आप टीवी देखते और अख़बार पढ़ते है तो यह लगभग तय है कि इसके बारे में आपने कभी सुना पढ़ा नहीं होगा। भारत का पूरा मीडिया बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे में होने के कारण वे इस लफ्ज का उच्चारण कभी भूलकर भी नहीं करते। कार्यकर्ताओ से मेरा आग्रह है कि ऍफ़ डी आई के संदर्भ में इस समस्या पर ध्यान दें। . 6.1. निवेश का पूंजीगत दायित्व ( सीमित ) . मान लीजिये एक कम्पनी X भारत में पॉवर प्लांट लगाने के लिए ऍफ़ डी आई के माध्यम से 1 करोड़ डॉलर का निवेश करती है। अत: यह कम्पनी 1 करोड़ डॉलर भारत सरकार में जमा करेगी और बदले में सरकार कम्पनी X को 1 करोड़ डॉलर=70 करोड़ रूपये दे देगी। अब X इस रूपये से भारत में जमीन खरीदेगी, प्लांट लगाएगी और अपना कारोबार करेगी।
दुनिया के सभी देशो में यह क़ानून है कि जितना डॉलर किसी कम्पनी ने किसी सरकार में कारोबार के लिए जमा करके स्थानीय मुद्रा प्राप्त की है, उतना डॉलर सरकार लौटाने के लिए बाध्य है। मतलब X किसी भी दिन अपनी जमीन एवं अन्य संपत्तियां बेचकर भारत सरकार में 70 करोड़ रुपया जमा करके बदले में 1 करोड़ डॉलर मांग सकती है। और सरकार को रूपये के बदले ये डॉलर लौटाने होंगे।
पहली समस्या यह है कि चूंकि हम लगातार ऐसे कानूनों को गेजेट में छापने की अनदेखी कर रहे है जिससे स्थानीय निर्माण में सुधार हो, अत: हमें हर वर्ष व्यापार का घाटा होता है, और हम ये 1 करोड़ डॉलर अगले महीने भर में तेल, दवाइयाँ, चिकित्सीय उपकरण, मोबाईल आदि आयात करने में फूंक देते है। इस तरह हम अब तक 800 बिलियन डॉलर ( 1 बिलियन = 100 करोड़ डॉलर ) सिर्फ ऍफ़ डी आई के माध्यम से लेकर खर्च कर चुके है।
यह 800 बिलियन डॉलर हम पर कर्ज है। और ये कर्ज हमें चुकाना ही चुकाना है। 500 डॉलर का हम पर विश्व बैंक का अतिरिक्त कर्ज है। इस तरह हम पर 800+500 = 1300 बिलियन डॉलर का कर्ज है। हमारे पास विदेशी मुद्रा कोष में लगभग 600 बिलियन डॉलर है। इस तरह 1300-600 = 700 बिलियन डॉलर का हम पर ऍफ़ डी आई का कुल पूंजीगत कर्ज हो चुका है। आगे भी जैसे जैसे ऍफ़ डी आई से और भी निवेश आएगा डॉलर चुकाने का दायित्व बढ़ता जाएगा।
और यह कर्ज किसी आंकड़े में नजर नहीं आता। हम हर महीने किसी न किसी क्षेत्र में ऍफ़ डी आई के माध्यम से डॉलर लेते है और आयात में इसे फूंक देते है। जब डॉलर ख़त्म हो जाते है तो प्रधानमन्त्री जी ( पीएम चाहे कोई भी हो, 1991 से यही सिससिला चल रहा है ) किसी न किसी कम्पनी के साथ कागज साइन करके उनसे डॉलर ले आते है, और फिर यह डॉलर आयात में खर्च हो जाते है। सारे विदेशी सम्बन्ध और विदेश नीति यही है। और कुछ नहीं है। पर चूंकि यह दायित्व सीमित है, और हमें नजर आ रहा है अत: मूल समस्या यहाँ नहीं है। मूल समस्या अगले बिंदु में है। . 6.2. निवेश पर कमाए गए लाभ पर डॉलर चुकाने का असीमित दायित्व . यह वह समझौता है जो पूरे देश के बिक जाने और कंगाल होने को सुनिश्चित करता है।
भारत सरकार ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से यह वादा किया हुआ है कि वे भारत में व्यापार करके मुनाफे के रूप में भी जितना रुपया कमाएंगे सरकार उन रूपयों के बदले में असीमित डॉलर चुकाएगी !!
( हाँ , आपने सही पढ़ा है। इसे फिर से पढ़िए )
अब मान लीजिये कि कम्पनी X भारत में 1 करोड़ डॉलर जमा करके 70 करोड़ रूपये प्राप्त करती है और अगले दस वर्ष में 700 करोड़ रूपये कमाती है। तो अब X भारत सरकार के पास किसी भी समय ये 700 करोड़ रूपये जमा करके 10 करोड़ डॉलर मांग सकती है, और भारत सरकार X को 10 करोड़ डॉलर चुकायेगी !! यानी X भारत में जितना ज्यादा रुपया कमाएगी, हम पर उतना ही ज्यादा डॉलर चुकाने का बोझ बढेगा !!
तो हमने 1 करोड़ डॉलर की ऍफ़ डी आई क्यों आने दी थी ?
क्योंकि हमारे पास डॉलर नहीं थे। यदि हमने 1 करोड़ डॉलर का कर्ज लिया होता तो हम पर सिर्फ 1 करोड़ डॉलर चुकाने का दायित्व आता। लेकिन हमने यह 1 करोड़ डॉलर ऍफ़ डी आई के माध्यम से लिया अत: हम पर दो तरह का दायित्व आया। पहला पूंजीगत दायित्व और दूसरा पूँजी पर कमाए गए मुनाफे का दायित्व !!!
तो भारत में 800 बिलियन डॉलर ऍफ़ डी आई के रूप में आ चुका है और अभी ये कम्पनियां इन 800 बिलियन डॉलर को कितने बिलियन डॉलर में बदल चुकी है, इसका किसी के पास कोई अंदाजा नहीं है। यह राशि 8,000 बिलियन डॉलर भी हो सकती है, और 10,000 बिलियन डॉलर भी !!!
चीन एवं भारत में ऍफ़ डी आई का अंतर : चीन ने ऍफ़ डी आई पर कमाए गए मुनाफे पर असीमित डॉलर चुकाने से मना कर दिया था। जब 1975 में चीन ने ऍफ़ डी आई की अनुमति दी तो उसने यह शर्त रखी कि वह किसी कम्पनी को उतने ही डॉलर चुकाएगा जितना डॉलर अमुक कम्पनी ने चीन की सरकार में जमा किया है। मतलब यदि X ने 1 करोड़ डॉलर जमा करके 7 करोड़ येन प्राप्त किये है और व्यापार करके 70 करोड़ येन कमाए है तो भी चीन सिर्फ 1 करोड़ डॉलर ही चुकाएगा, 10 करोड़ डॉलर नहीं। और फिर चीन ने ऐसे क़ानून छापने शुरु किये जिससे चीन में स्थानीय निर्माण इकाइयों की उत्पादक क्षमता में विस्फोट हो। इससे चीन के स्थानीय निर्माता बड़े पैमाने पर उत्पादन कर पाए और चीन का निर्यात आसमान छूने लगा।
2001 के आस पास जब चीन के पास डॉलर सर प्लस हो गया और सभी क्षेत्रो में उनकी फेक्ट्रियां बड़े पैमाने पर उत्पादन करने में सक्षम हो गयी तो उन्होंने इस शर्त को निकाल दिया। लेकिन बावजूद इसके चीन ने अर्थव्यवस्था के बेहद संवेदनशील क्षेत्रो जैसे संचार, रक्षा, रेलवे, ऊर्जा, बैंक आदि क्षेत्रो में ऍफ़ डी आई की अनुमति नहीं दी !!! . 6.3. मोरिशस, सिंगापुर और फिजी रूट . भारत सरकार ने यह क़ानून भी गेजेट में छापा है कि मोरिशस की कम्पनी यदि भारत में निवेश करती है तो उसे भारत में कोई आयकर नहीं चुकाना होता !! तो जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में निवेश करती है, तो वे पहले इसकी एक सब सिड्यरी मोरिशस में खोलती है, और फिर मोरिशस रूट से डॉलर लेकर आती है !!
इस तरह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मुनाफे पर 30% आयकर नही देना होता जबकि भारतीय कम्पनियां ये टेक्स चुकाती है !! मतलब यह एक तरह का लगान है जो सेना कमजोर होने के कारण हम आज भी चुका रहे है। विदेशी भारत में टेक्स न चुकाएगा किन्तु भारत के कारोबारी चुकायेंगे !! और फिर भारत के बुद्धिजीवी कहते है कि भारतीय कम्पनियां पिछड़ रही है !!! . 6.4. ऍफ़ डी आई स्थानीय इकाइयों को निगल जाती है . विदेशी कम्पनियां डॉलर का समन्दर है और जूरी सिस्टम होने के कारण उनके पास ऐसी तकनीक है कि भारत की स्थानीय इकाइयां उनके सामने टिक नहीं सकती। तो जिस क्षेत्र में भी ऍफ़ डी आई आएगी उस क्षेत्र की सभी स्थानीय इकाइयों का या तो अधिग्रहण कर लेती है या फिर उन्हें बाजार से बाहर कर देती है। इस तरह वे अपना एकाधिकार बना लेते है।
एकाधिकार के बाद उनका मुनाफा शूट अप हो जाता है। और मुनाफे के बढ़ने से हम पर डॉलर चुकाने का बोझ बढ़ जाता है। स्वदेशी स्थानीय निर्माण इकाइयों के चरमराने से हमारा निर्यात और भी गिरता है और इस वजह से हमें और भी डॉलर यानी की ऍफ़ डी आई की जरूरत होती है !!
वे ऐसा कानूनों के माध्यम से करते है। मतलब वे मंत्रियो को घूस देकर या धमका कर या सकारात्मक मीडिया कवरेज के एवज में उनसे गेजेट में ऐसे क़ानून छपवाएंगे कि स्थानीय इकाइयां खुद ही बड़े पैमाने पर बंद हो जायेगी। और आपको कभी भी ये पता नहीं चलेगा कि भारत की स्थानीय इकाइयां कहाँ गायब हो गयी है।
उदाहरण के लिए जीएसटी ऐसा ही क़ानून है। जीएसटी छोटी फैक्ट्रियो के लिए कत्लखाना है, और यह अगले 10 सालों में भारत की लगभग 20–25 % छोटी एवं मझौली इकाइयों को बाजार से बाहर कर देगा। जीएसटी नामक कत्लखाने की ड्राफ्टिंग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने 1956 में की थी। इसे इस तरह डिजाइन किया गया है कि यह क़ानून स्थानीय छोटी एवं मझौली इकाइयों को बड़े पैमाने पर हलाल कर देता है। इसके बारे में विस्तृत विवरण मैं फिर किसी जवाब में लिखूंगा।
एक और उदाहरण देखिये : 2015 में प्रधानमंत्री जी ने मोरिशस ट्रीटी में यह संशोधन जोड़ा कि यदि कोई भारतीय कम्पनी मोरिशस की किसी कम्पनी से सेवाएं लेती है तो उसे 10% जीएसटी चुकाना होगा, जबकि भारतीय कम्पनी से सेवाएं लेने पर उन्हें 18% जीएसटी देना होगा !! तो इसका नतीजा क्या होगा ? भारत की कम्पनियां 8% बचाने के लिए मोरिशस की कम्पनियों से सेवाएं लेगी और भारतीय स्थानीय कम्पनियां अपने ग्राहक खोने लगेगी !! और इस तरह के दर्जनों क़ानून हमारे मंत्री हर साल छापते है जिससे विदेशी कम्पनियों को बढ़त मिले। . HDFC एवं ICICI बैंक 1990 से पहले तक पूर्ण रूप से भारत सरकार की सम्पत्ति थे। 1992 में बैंक में विदेशी निवेश की अनुमति देने के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इन बैंको को पूरी तरह से टेक ओवर किया। इस तरह बैंक उनके कंट्रोल में आये। फिर उन्होंने निर्माण एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर में ऍफ़ डी आई की अनुमति ली, और 4 लेन बनाने के ठेके लिए। फिर उन्होंने खाता धारक को असीमित चेक बुक देकर उन्हें बड़े पैमाने पर लोन पर वाहन खरीदने के लिए प्रेरित किया। फिर उन्होंने पब्लिक ट्रांसपोर्ट तोड़ने के लिए क़ानून छपवाए।
अब इस पूरे सेट अप से उन्होंने अगले 15 वर्षो में भारत की सडको पर करोड़ो वाहन फेंके। आज भारत की सड़के वाहनों से अटी पड़ी है। पहले इस पूरे कारोबार से उन्होंने भारत में रूपये के रूप में मुनाफा कमाया और अब हमे इसके लिए डॉलर चुकाने है।
लेकिन इस पूरी कवायद में तेल कम्पनियों का मुख्य लक्ष्य भारत में पेट्रोल की खपत बढ़ाना था। अब इन सभी वाहनो की वजह से भारत में पेट्रोल की खपत कई गुणा बढ़ गयी है, और हम अपना 80% तेल आयात करते है। इस तरह हमारा व्यापार घाटा और भी बढ़ा और ये बढ़ता ही जाएगा। और अब ये बैंक जितना पैसा बना रहे है उसके बदले हमे डॉलर चुकाने है !!
यदि भारत में जूरी सिस्टम डाल दिया जाता है तो सिर्फ 5-7 वर्षो में भारत तेल निकालने की तकनीक जुटा कर स्वदेशी तेल कम्पनियां खड़ी कर सकता है। और एक बार यदि हमने तेल निकालने की कम्पनियां खड़ी कर दी तो हम हर वर्ष बिलियंस ऑफ़ डॉलर बचायेंगे। बल्कि हम भारत से तेल निकाल कर अन्य देशो को बेच भी सकेंगे।
. (7) सार . सबसे पहले हमारे नीति नियन्ता उन कानूनों को गेजेट में छापने का विरोध करते है जिनसे भारत में स्थानीय इकाइयों की निर्माण क्षमता बढे। इस वजह से हम तकनीक में पिछड़े रहते है, और हमारा निर्यात गिरता है। व्यापार घाटा पूरा करने के लिए वे कर्ज लेते है। जब उन्हें कर्ज मिलना बंद हो जाता है तो वे ऍफ़ डी आई के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्र विदेशियों के हवाले करते है। इससे जो डॉलर आता है उसे आयात में फूंक दिया जाता है।
फिर जब डॉलर ख़त्म हो जाते है तो ये भारत की राष्ट्रिय संपतियां बेचना शुरू करते है। कभी ओएनजीसी के शेयर बेचते है, कभी कोल इण्डिया, कभी एयरपोर्ट बेचते है, कभी रेलवे स्टेशन। कभी बिजली विभाग बेचते है तो कभी कोई माइनिग राइट्स। इस तरह ये पिछले 27 साल से देश की राष्ट्रीय संपत्तियां बेचकर डॉलर ला रहे है और देश चला रहे है। और पेड मीडिया ने इस नीलामी के लिए एक विनिवेश नामक खूबसूरत लफ्ज़ ईजाद किया है !!
पिछले 27 साल में यह सबसे बड़ा कानूनी भ्रष्टाचार है। क्योंकि प्रत्येक बिकवाली पर नेताओं को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा हिस्सा दिया जाता है। और इसके बदले में वे डॉलर पुनर्भरण, मोरिशस ट्रिटी जैसे क़ानून गेजेट में जारी रखते है और ऐसे नये क़ानून गेजेट में छापते है जिससे स्वदेशी इकाइयों की कमर टूटे, और विदेशी कम्पनी को अतिरिक्त फायदा हो !! आज स्थिति यह है कि जब भी आप कोई नूडल खरीदते है या अपनी गाड़ी में तेल भराते है तो सरकार पर डॉलर चुकाने का बोझ बढ़ जाता है। भारत की सभी राजनैतिक पार्टियों और नेताओ के थेले में ऍफ़ डी आई है, और आपको यह विकल्प दिया गया है कि आप ऍफ़ डी आई किस नेता या पार्टी के हाथ से लेना पसंद करेंगे !!!
चित्र : 10
. और इस पूरे मामले को कवर देने के लिए पेड मीडिया एवं पेड विशेषग्य उन्होंने रख छोड़े है, जो पिछले 27 साल से एक ही गाना गा रहे है। अभी जीडीपी बढ़ेगी, अभी निवेश और आया, अभी अर्थव्यवस्था संभलेगी, अभी ग्रोथ थोड़ी बढ़ गयी, अभी विकास दर उछली, अभी रुपया मजबूत होने वाला है, अभी रुझान अच्छे आ रहे है आदि आदि।
India’s Trade Deficit Nearly Doubles To $87.2 Billion In FY18
चित्र : 11
. वे यह बात कभी नहीं बताते कि दुनिया के किसी भी देश में ऍफ़ डी आई आने के बाद ऐसा नहीं हुआ है, और न ही होने वाला है। आप पिछले 27 साल के अख़बार देख लीजिये, वही के वही डायलोग मार मार कर वे टाइम पास कर रहे है !!
( यहाँ मैं एक बात स्पष्ट कर दूँ कि मैं विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाली बकवास में नहीं मानता हूँ। इसका इलाज यह है कि हम ऐसे क़ानून छापे जिससे भारत की स्वदेशी इकाइयां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को टक्कर देने वाले उत्पाद बना सके। देश प्रेम का नारा लगवाकर घटिया वस्तु खरीदने का झांसा देना एक अव्यवहारिक प्रस्ताव है। ) . ———— खंड (स) ———— .
(8) समाधान ? . त्वरित समाधान :
8.1. यदि प्रधानमंत्री जी निचे दी गयी धारा को गेजेट में छाप दें तो मोरिशस, सिंगापुर एवं फिजी रूट से निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियों को भी उतने ही टेक्स चुकाने होंगे जितना टेक्स भारतीय कम्पनियां चुका रही है।
आयकर अधिनियम 1961 में निम्न धारा को जोड़ी जायेगी जो भाग 90AA कहलाएगी –
“ भारत में कार्यशील कोई भी कम्पनी, चाहे वो भारत में हो, चाहे विशेष आर्थिक जोन (सेज) में हो या विशेष आर्थिक जोन के बाहर हो, चाहे वे मॉरीशस या सिंगापुर या किसी अन्य देश में हो, ऐसी सभी कम्पनियों पर करो की समान दरें लागू होगी। दूसरे शब्दों में, सभी तरह की आय जैसे अल्पकालीन / दीर्घकालीन पूंजीगत लाभ, तथा अन्य लाभ आदि पर टैक्स की दरें एक सामान्य भारतीय कंपनी के बराबर ही होंगी। आयकर अधिनियम में मौजूद कोई भी धारा जो इस धारा के विरुद्ध आशय प्रकट करती है, वह धारा अमान्य और हटायी गयी मानी जायेगी।”
[ मौजूदा आयकर अधिनियम में 90AA खण्ड उपलब्ध नहीं है। उपरोक्त धारा से आयकर अधिनियम में यह भाग जुड़ जायेगा। मंत्रिमंडल इस धारा को अध्यादेश द्वारा सीधे पारित कर सकता है और जब ये मंत्रिमंडल द्वारा पारित हो जाएगा, तो इसे 6 महीनों के भीतर संसद में पारित करना होगा ] . 8.2. यदि प्रधानमंत्री जी ये 2 पृष्ठ गैजेट में प्रकाशित कर दें तो अब से भारत में जो विदेशी निवेश आएगा उसके बदले हमें सिर्फ उतने ही डॉलर चुकाने होंगे जितने डॉलर किसी विदेशी ने भारत सरकार में जमा किये है। इस तरह गेजेट का इस्तेमाल करके हम भविष्य में डॉलर चुकाने के असीमित दायित्व से बच सकते है। ड्राफ्ट का सारांश यहाँ देखें - भारत में विदेशी कम्पनियों का प्रभुत्व कम करने के लिए प्रस्तावित प्रक्रियाएं पर Pawan Jury द्वारा विदेशीयों को असीमित डॉलर चुकाने पर रोक के लिए प्रक्रिया का सारांश : . ऊपर दिए गए दो ड्राफ्ट तत्काल रूप से गेजेट में छापे जाने की जरूरत है। उपरोक्त क़ानूनो के अभाव में अभी भारत में विदेशी कम्पनियां गलत तरीके से अतिरिक्त लाभ कमा रही है और इससे एक तरफ तो स्वदेशी कम्पनियां पिछड़ रही है, दुसरे भारत पर डॉलर का असीमित दायित्व बढ़ रहा है। उल्लेखनीय है कि ये दोनों क़ानून आने से विदेशी कम्पनियों पर रोक नहीं लगेगी सिर्फ असीमित दायित्व का अंत होगा। ऍफ़ डी आई पर रोक का ड्राफ्ट निचे वाले बिंदु में दिया है।
8.3. हमने जो कानूनी ड्राफ्ट प्रस्तावित किया है वह सभी क्षेत्रो में ऍफ़ डी आई पर रोक नहीं लगाता है। लेकिन अर्थव्यवस्था के संवेदन शील क्षेत्रो जैसे बैंक, रक्षा, मीडिया, खनन आदि में विदेशी निवेश पर प्रतिबन्ध लगाता है। ड्राफ्ट यहाँ देखें - भारत में विदेशी कम्पनियों का प्रभुत्व कम करने के लिए प्रस्तावित प्रक्रियाएं पर Pawan Jury द्वारा विदेशी कम्पनियों पर रोक के लिए प्रस्तावित क़ानून ड्राफ्ट का सारांश
हमारा मानना है कि राईट टू रिकॉल-पीएम क़ानून लाये बिना प्रधानमंत्री जी को उपरोक्त कानून गेजेट में छापने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। . ------—- . (9) स्थायी समाधान
इसमें दो राय नहीं है कि इसके लिए हमें ऐसे क़ानून छापने पड़ेंगे जिससे लोकल मेनुफेक्चरिंग मजबूत हो और हम ऐसी स्वदेशी कम्पनियां खड़ी कर पाए जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को टक्कर दे सके। अब प्रश्न यह है कि क्या ऍफ़ डी आई पर रोक लगाए बिना लोकल मेनुफेक्चरिंग को मजबूत किया जा सकता है ? हमारा मानना है कि यह किसी भी तरीके से मुमकिन नहीं है।
इन कानूनों की सबसे बड़ी बाधा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक है, और उनकी इच्छा के खिलाफ जाना अब भारत के किसी भी नेता के लिए आसान नहीं है। ऍफ़ डी आई के माध्यम से अमेरिकी आज भारत में भारत से भी ज्यादा ताकतवर हो चुके है।
भारत के सभी नेता, मंत्री, विधायक, सांसद, पत्रकार, मीडिया समूह, एन जी ओ, कलाकार, लेखक, पक्ष-विपक्ष, जज आदि पर उनका मजबूत नियंत्रण है। और उनके पास यह नियंत्रण पेड मीडिया की वजह से आता है। पेड मीडिया की वजह से वे भारत के पीएम को बराबर अपने कंट्रोल में रखते है, और यदि पी एम उनके खिलाफ जाता है तो वह अपनी कुर्सी खो देगा।
उनकी ताकत समझने के लिए एक उदाहरण लीजिये - यदि इस समय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक भारत को 5 ड्रोन पकड़ा दें तो भारत की तरफ से ये ड्रोन पाकिस्तान की सीमा में घुस कर 3 घंटे में इतनी जबरदस्त स्ट्राइक करेंगे और इसका वास्तविक वीडियो निकाल कर पूरी दुनिया में इस तरह दिखाएँगे कि बीजेपी आने वाले आम चुनाव में 350 सीट जीत जायेगी !! और जब अमेरिका भारत को ड्रोन देगा तो पाकिस्तान के जनरल यह हमला चुपचाप सह लेंगे !!!
और यदि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक हाफिज सईद और मसूद अजहर को हथियार भेजना शुरू करें तो कश्मीर में पुलवामा जैसे हमले हर सप्ताह होने लगेंगे। और फिर मीडिया इसे इस तरह प्रसारित करेगा कि करोड़ो नागरिको को यह लगने लगेगा कि मोदी साहेब के नेतृत्व में कश्मीर हाथ से निकल सकता है। और इस तरह अगले चुनाव में श्री योगी जी या राजनाथ सिंह जी को पीएम बना दिया जाएगा !!
यह तो एक मामूली उदाहरण है। वे 4 घंटे में ऐसे हालात पैदा कर सकते है कि मोदी साहेब या तो खुद ही इस्तीफा देकर निकल जायेंगे, या सांसद उन्हें अरुण जेटली या किसी अन्य नेता से बदल देंगे। और ऐसा करने से पहले वे पेड मीडिया का इस्तेमाल करके इसकी वाजिब वजह पैदा कर देंगे ताकि भारत के करोड़ो नागरिक इसका समर्थन करें !!
हमारे सिर पर ऍफ़ डी आई के रूप में आये हुए 800 बिलियन डॉलर के पूंजीगत दायित्व की तलवार लटक रही है। और इसमें मुनाफा भी जोड़े तो यह कितना बिलियन होगा हमें पता नहीं है । यदि अमेरिकी धनिक एक साथ ये रुपया आर बी आई में जाकर जमा कराकर डॉलर माँगना शुरू करते है तो भारत 15 दिन में बैंक करप्ट हो जाएगा और रुपया डॉलर के मुकाबले 200 रू तक गिर जाएगा !!! कुल मिलाकर भारत की अर्थव्यवस्था पर वे फौलादी पकड बना चुके है। और सबसे बदतर यह कि भारत के ज्यादातर नागरिक इससे अनभिग्य है !!
तो यह व्यवहारिक सच्चाई है कि पीएम अब भारत के नागरिको के कंट्रोल में नहीं रह गया है। भारत के करोड़ो नागरिक पेड मीडिया के कंट्रोल में है, पेड मीडिया बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कंट्रोल में है, और करोड़ो नागरिको की राय को प्रभावित करने के कारण पीएम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कंट्रोल में है !! भारत में जैसे जैसे ऍफ़ डी आई यह कंट्रोल बढ़ता गया, और वक्त के साथ साथ यह कंट्रोल बढ़ता जाएगा।
आप सीधे शब्दों में इसे यूँ समझे कि क्या भारत का कोई पीएम ऐसे लोगो के खिलाफ जाने की हिम्मत दिखायेगा जो अमेरिकी सेना और अमेरिकी सांसदों को कंट्रोल करते है ? मेरे विचार में हम ऐसी उम्मीद करके पीएम के साथ ज्यादती कर रहे है। ऐसा सिर्फ तब संभव है जब भारत का पीएम उनके पंजे से निकलकर भारत के करोड़ो नागरिको के नियंत्रण में आये।
यदि राईट टू रिकॉल पीएम का क़ानून गेजेट में छाप दिया जाता है तो भारत का पीएम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नियंत्रण से निकलकर सीधे नागरिको के नियंत्रण में आ जाएगा। और यदि एक बार हम पीएम को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल से आजाद कर देते है तो भारत के पी एम को ये कानून लागू करने के लिए बाध्य कर सकते है।
लोकल मेनुफेक्चरिंग इम्प्रूव करने के लिए हमें निम्नलिखित सुधार करने की जरूरत है :
जीएसटी विदेशियों को लाभ पहुंचाने के लिए डिजाइन किया गया है। हमे इसे ख़त्म करके वेल्थ टेक्स लाना पड़ेगा। जमीन सस्ती किये बिना बड़े पैमाने पर निर्माण इकाइयां नहीं लगाई जा सकती। वेल्थ टेक्स आने और भू स्वामित्व के सभी लेखे सार्वजनिक करने से जमीन के दाम गिर जायेंगे। खनिज संसाधनों की लूट रोकने के लिए एम आर सी एम क़ानून चाहिए। गणित विज्ञान और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम का स्तर सुधारने के लिए हमें राईट टू रिकॉल शिक्षा अधिकारी एवं शिक्षा मंत्री पर राईट टू रिकॉल चाहिए। जजों का भ्रष्टाचार ठीक किये बिना लोकल मेनुफेक्चरिंग सुधारने की बात करना समय खराब करने वाली बात है। जूरी सिस्टम इसका इलाज है। हथियारों का उत्पादन करने के लिए Woic का क़ानून। सभी इंजीनियरिंग, खनन एवं भारी मशीनरी क्षेत्र के सभी सार्वजानिक उपक्रमों जैसे ओ एन जी सी, कोल इण्डिया, भेल, सेल आदि के अध्यक्षों पर राइट टू रिकॉल एवं जूरी प्रक्रियाएं। ताकि ये अच्छे से काम करना शुरु करें।
उपरोक्त कानूनों के प्रस्तावित ड्राफ्ट के लिए ब्लॉग सेक्शन देखें . ----——— . (10) यदि मौजूदा क़ानून जारी रहते है और ऍफ़ डी आई इसी तरह आती रहती है तो आने वाले कुछ वर्षो में आप निम्नलिखित परिवर्तन देखेंगे :
शिक्षा : विज्ञान गणित का स्तर लगातार बदतर होगा, लेकिन स्कूल ज्यादा चमकदार हो जायेंगे। निजी शिक्षा महंगी होगी और सरकारी स्कूल सिकुड़ते जायेंगे। गणित-विज्ञान टूटने से मनुफेक्चरिंग का आधार टूटेगा। इंजीनियरिंग का सिलेबस और भी सरल कर दिया जाएगा। व्यापार : स्थानीय छोटी एवं मझौली इकाईया घटेगी और सिर्फ कुछ कम्पनियों का ही पूरे बाजार पर कब्ज़ा होगा। इससे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी आएगी। लोग खुद का काम खो देंगे और एक क्लर्की क्लास का जन्म होगा। चिकित्सा : सरकारी अस्पताल और भी बर्बाद होंगे, और निजी अस्पतालों में चिकित्सा, दवाइयां आदि बेहद महंगी होती जायेगी। मरीज ग्राहक बन जाएगा और अस्पताल होटलनुमा हो जायेंगे। आवश्यक सेवाएं : बिजली, पानी, केबल, परिवहन, रेल जैसी अनिवार्य सेवाएं लगातार महंगी होंगी और इन क्षेत्रो में काम करने वाली सभी सरकारी कम्पनियों को विदेशी खरीद लेंगे। प्राकृतिक संसाधन : भारत के सभी प्राकृतिक संसाधन एवं कीमती जमीने विदेशियों के कब्जे में चली जायेगी, और अंत में इनकी कीमते आसमान छूने लगेगी। उल्लेखनीय है कि चीन में विदेशी को जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है। आभासी समृद्धि : पब्लिक ट्रांसपोर्ट और भी कचरा होता जाएगा, और ट्रेफिक की समस्या बढ़ेगी। आम भारतीय जमीन एवं सोने के रूप में अर्जित वास्तविक सम्पत्ति खो देंगे और उपभोक्ता वस्तुओ में खुद को खर्च करके कर्ज में चले जायेंगे। कर्ज तब तक लगभग मुफ्त मिलेगा जब तक कि आप पूरी तरह से कर्ज में न डूब जाए। अपराध : स्ट्रीट क्राइम और स्ट्रीट जस्टिस में वुद्धि होगी। भ्रष्ट जज और भी निरंकुश एवं और भी भष्ट हो जायेंगे। धर्म : मंदिरों में धार्मिक जमाव टूटेगा और अगली नस्ल में मंदिरगामी श्रधालुओ में भारी गिरावट आएगी। मंदिरों की सम्पत्ति को सरकारे खींच कर मिशनरीज को पकड़ा देगी। संत, साधू आदि चोर, उच्चको, लुटेरों और बलात्कारियो के प्रतीक बन जायेंगे। गाय : देशी गाय की प्रजाति अगले 20 वर्ष में इतनी सिकुड़ जायेगी कि देशी गाय का दूध औषधि की तरह शीशियो में बिकेगा या सिर्फ अमीर लोग ही इसका सेवन कर सकेंगे। संस्कृति : समाज में पेड मीडिया द्वारा नग्नता और अपसंस्कृति को सार्वजनिक बढ़ावा दिया जाएगा। AIB , बिग बॉस आदि तो शुरुआत है। अभी आप सिर्फ प्राइम टाइम की न्यूज ब्रेक में ही कन्डोम के उत्तेजक विज्ञापन देख रहे है, जल्दी ही पारिवारिक धारावारिको में भी आपको अश्लीलता, नग्नता और फूहड़ता दिखाई देने लगेगी। मीडिया एवं टीवी में सार्वजनिक गाली गलौज भी बढ़ेगी। अलगाव : समाज में लगातार सांप्रदायिक और जातिय तनाव बढेगा। हर साल किसी न किसी समूह द्वारा आरक्षण के लिए आन्दोलन होंगे और मीडिया में इन्हें हमेशा काफी कवरेज मिलेगा। इसकी मांग भी बढ़ेगी, इसे बढाने के लिए क़ानून भी बनाए जायेंगे, और इसे आधार बनाकर जातीय अलगाव भी लगातार बढेगा। भाषा : भारत में अगले 50 साल में हिन्दी की दशा वही हो जायेगी जो आज संस्कृत की है। अगली नस्ल अतार्किक, फूहड़, असभ्य, हिंसक, सार्वजनिक रूप से अश्लील और भावुक होगी लेकिन यह पढ़ी लिखी भी होगी। ये सभी परिवर्तन खुद से नहीं आ रहे है, और न ही खुद से आयेंगे। या ऐसा नहीं है कि ये कोई अनुमान है। ये ऍफ़ डी आई का पेटर्न है, और जिन भी देशो में पिछले में ऍफ़ डी आई गयी है वहां इसी तरह के परिवर्तन देखने को मिले है। इन परिवर्तनों को बढ़ावा देने के लिए मंत्री लगातार गेजेट में वैसे क़ानून छाप रहे है, और यदि ऍफ़ डी आई नहीं रुकी तो वे ऐसे क़ानून निरंतर छापते जायेंगे। जो भी इन परिवर्तनों को क़ानून की दृष्टी से देखेगा वह समझ सकता है कि ये परिवर्तन कैसे लाये जा रहे है।
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चित्र एवं संदर्भ स्त्रोत :
John D. Rockefeller - Wikipedia
Everything You Wanted to Know About Goa Inquisition From the Colonial Era
List of sovereign debt crises - Wikipedia
Foreign Direct Investment